मैं आज भी ज़िन्दा हु , मुझे जीना है!
कहानी का नाम: "गली नंबर 7 – जो अब भी ज़िंदा है"
(स्थान: श्यामबाज़ार और सोभाबाज़ार की बीच की एक पुरानी गली)
उत्तर कोलकाता की वो पुरानी गली, जिसकी दीवारें आज भी 1946 के दंगों की गवाही देती हैं। जहाँ अब वक्त भले बदल गया हो, लेकिन हर ईंट में इतिहास की स्याही बसी है।
गली नंबर 7 में एक बूढ़े मिस्त्री रोज़ सुबह साइकिल लेकर निकलते हैं — वो कहते हैं,
"इन्हीं गलियों में मैंने आज़ादी से पहले नारे सुने थे, और अब केवल खामोशी है।"
पुराने बागान, जर्जर मकान, झूलते तारों के बीच अब भी बच्चे खेलते हैं, जैसे वक़्त उन्हें छू नहीं पाया।
पिछले महीने एक पुराना मकान गिर गया। तीन लोग दबे, दो को बचाया गया। पर खबर सिर्फ लोकल अख़बार के कोने में छपी।
सवाल उठता है — क्या नॉर्थ कोलकाता की ये विरासत, सिर्फ यादों में ज़िंदा रहेगी? या सिस्टम कभी देखेगा इन गलियों की हकीकत?
जहाँ कुछ लोग अब भी निगम से पूछते हैं —
"मकान को खतरनाक कह देने से क्या जिम्मेदारी खत्म हो जाती है?"
उत्तर कोलकाता की गलियाँ सिर्फ रास्ते नहीं, ये हमारी विरासत हैं। इन्हें बचाना सिर्फ इमारतों को बचाना नहीं — एक दौर, एक पहचान को ज़िंदा रखना है।
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